मातृत्व –सुख, समस्याएँ और निदान
स्त्री जीवन की सार्थकता मातृत्व मे ही देखी गयी
है.विवाह संस्था का मुख्य प्रायोजन भी यही है की स्त्री,पुरुष संतान को जन्म देकर सृष्टि की रचना मे अपना योगदान कर
,पूर्वजों ऋण से
मुक्त हो जाए.
‘जातक परिजात’
के अनुसार ,संतान –उत्पत्ति स्त्री
के जीवन को सार्थक बनाकर उसका भग्योदय करती है. अतः नवम भाव को भी संतान भाव के
रूप मे माना जाना चाहिए .नवमेश की कुंडली मे स्थिति व अन्य ग्रहों के साथ उसके
संबंधों पर भी विचार किया जाना चाहिए.
‘ऋषि’ पराशर के अनुसार लग्न और चंद्र लग्न से नवम
भावों मे से जो बलशाली हो ,वही भाव संतानोत्पत्ति के लिए कारक भाव माना जाना चाहिए
.दूसरी ओर ‘जैमिनी ऋषि’ ने स्त्री के कुंडली मे संतान के संकेत के लिए
सप्तम भाव के अध्ययन की भी आवश्यकता बताई है.
व्यस्क और स्वस्थ
स्त्री मे उसके रजस्वला होने से लेकर रजोनिव्रित्ति तक का काल एक कामचक्र द्वारा चक्र का एक चरण
अंड निर्माण व प्रवाह का और दूसरा चक्र मासिक धर्म का एक होता है,जो बारी-बारी से चलते रहते है.ज्योतिर्विदो के
अनुसार यह कामचक्र मंगल व चंद्र के बीच चलने वाली पारस्परिक प्रक्रिया होती
है.पुरानी कोशिकाओं को तोड़कर मासिक धर्म स्राव कारण मंगल का नयी कोशिकाओं का निर्माण और आंड
निर्माण व प्रवाह चंद्र का दायित्व होता है. इस प्रकार यह काम-चक्र मंगल व चंद्र
की पारस्परिक प्रक्रिया का ही प्रतिफल होता है.चंद्रमा बारहो राशियों मे अपने
भ्रमण का एक चक्र दो चरणो मे 27.32 दिन मे करता है.
इसी के अनुसार स्त्री के उत्पत्ति अंगों मे काम-चक्र भी इसी के अनुसार चलते for more detail please click this link http://trinetraastro.com/
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